'तुम्हारा'अकेलापन हमेशा तुम्हारे साथ रहता है...परछाई की तरह

फर्ज, अकेलापन, प्यार, परिवार, जिम्मेदारी, अहसास, जमीर और फिर से अकेलापन.........इन्हीं शब्दों के इर्द-गिर्द धूमती इस फिल्म ने बीच में बोर करने के बाद अंत में रुला दिया। ज्यादातर लोग जिंदगी भर झूठ बोलकर पूरी जिंदगी आराम से काट देते हैं लेकिन किसी के लिए एक झूठ उसकी पूरी जिंदगी बर्बाद कर देता है।

काश इसाबेल अपनी ममता का त्याग करते हुए अपने पति को फर्ज निभाने देती तो अंत शायद कुछ अच्छा होता। टॉम को जिंदगी भर घुटकर मरना न पड़ता। हालांकि गलती इसाबेल की भी नहीं है। कभी-कभी हमको खुद लगता है कि चलो ये तो भगवान की मर्जी है। स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन ज्यादातर समय भगवान की मर्जी हमारी मर्जी के विपरीत होती है फिर भी हम...........खैर, कहानी एक वॉर हीरो से लाइटकीपर (समुंद्र तट पर बने लाइट हाउस को संभालने वाला, इस लाइट हाउस का इस्तेमाल मुख्यतः तूफान आने पर लोगों को आगाह करना होता था।) बने शख्स की है। कहानी मैं लिख नहीं सकता थोड़ी कॉम्लीकेटेड है। उसके लिए फिल्म देख लो....

एम. एल. स्टैडमैन के इसी नाम (The Light Between Oceans) के नोवेल पर बनी है ये फिल्म। न मैं लेखक को जानता हूं और न ही मैंन ये नोवेल पढ़ा है। लेकिन फिल्म को डायरेक्टर डेरेक सीनिफ्रेंस ने जिस तरह से फिल्माया है वो काबिले तारीफ है। जिसने Blue Valentine देखी है वो इस डायरेक्टर को अच्छे से जानता होगा? हॉलीवुड की फिल्में मुझे इसलिए भी आकर्षित करती हैं क्योंकि उनमें भीड़ का भी अपना एक मीनिंग होता है। हमारी फिल्मों की तरह नहीं.....वैसे भीड़ से याद आया कि आजकल फिल्मों वाली भीड़ ने असल रूप धारण कर रखा है।

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