पलायन
है क्या?
एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर रहना
और अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करना पलायन कहलाता है। लेकिन
यह पलायन की प्रवृत्ति कई रूपों में देखी जा सकती है जैसे एक गांव से दूसरे गांव
में, गांव
से नगर, नगर
से नगर और नगर से गांव। परन्तु भारत में “गांव से शहरों” की ओर पलायन की प्रवृत्ति कुछ ज्यादा
है। एक तरफ जहां शहरी चकाचौंध, भागमभाग की जिन्दगी, उद्योगों, कार्यालयों तथा विभिन्न प्रतिष्ठानों में रोजगार के अवसर परिलक्षित
होते हैं। शहरों में अच्छे परिवहन के साधन, शिक्षा केन्द्र, स्वास्थ्य सुविधाओं तथा अन्य सेवाओं ने
भी गांव के युवकों, महिलाओं को आकर्षित किया है। वहीं गांव में पाई जाने वाली रोजगार की
अनिश्चितता, प्राकृतिक
आपदा, स्वास्थ्य
सुविधाओं के अभाव ने लोगों को पलायन के लिए प्रेरित किया है। एक शख्स जिसकी सोच और विचारों का
अनुसरण करता हूँ ने एक बार कहा था पलायन का मतलब है संभावनाओं की तलाश में अपने
क्षेत्र से बाहर निकलना , पलायन की इस परिभाषा से काफी हद तक संतुष्ट हूँ पर एक शंका है कि
क्या पलायन हर बार अपने उद्देश्यों के साथ सफल होता है? ज्यादातर लोग पलायन करते है रोजगार के
लिए, पर
बड़े बड़े सपने रखने वाले हजारों नौजवान समय से पहले पलायन कर जाते है अच्छी शिक्षा
और उज्जवल भविष्य के लिए।
गांवों से शहरों की ओर पलायन (आंकड़ों
में खबर)
बीते कुछ सालों में गांव छोड़कर शहरों
की ओर पलायन करने वाले ग्रामीणजनों की संख्या में निरन्तर बढ़ोत्तरी देखी जा रही
हैं। इससे कई प्रकार के असंतुलन भी उत्पन्न हो रहे हैं। शहरों पर आबादी का दबाव
बुरी तरह बढ़ रहा है, वहीं गांवों में कामगारों की कमी का अनुभव किया जाने लगा है। दरअसल, रोजगार और बेहतर अवसरों की तलाश ही इस
पलायन के प्रमुख कारण थे और इसी के चलते एक बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी हैं, जिन्हें अस्थायी या मौसमी पलायन करने
वालों की श्रेणी में रखा जा सकता है। इस मौसमी पलायन के चलते अपना वास स्थल छोड़कर
पलायित होने वालों का सही हिसाब रख पाना एक टेढ़ी खीर साबित होता है। सरकारी
आंकड़ों की बात करें तो साल 1991 से 2001 के बीच के दस सालों में सात करोड़ तीस
लाख ग्रामीणों ने पलायन किया। इनमें से पांच करोड़ तीस लाख लोग एक गांव छोड़कर
दूसरे गांवों में बसने के लिए चले गये और करीब दो करोड़ लोगों ने शहरों की ओर रुख
किया। इनमें ज्यादा तादाद ऐसे ही लोगों की थी जिन्हें काम की तलाश थी। एक गांव से
दूसरे गांव को पलायन करने वालों की संख्या कुल पलायन का 54.7 फीसदी है। सरकारी
आंकड़े यह भी बताते है कि 1991 से 2001 के बीच 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपना
निवास स्थान छोड़ा। जो देश की कुल आबादी का 30 प्रतिशत बैठता है।
पिछले एक दशक में किसी प्रांत के भीतर
और एक प्रांत से दूसरे प्रांत में पलायन करने वालों की संख्या नौ करोड़ 80 लाख
बतलायी गई है। इसमें से 6 करोड़ 10 लाख लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में ही जगह
बदली जबकि तीन करोड़ 60 लाख लोग गांव छोड़कर शहरों की ओर चले गए। यह देखना दिलचस्प
होगा कि 1991 से 2001 के दशक में किसी एक प्रांत को छोड़कर दूसरे प्रांत में जाने
वालों और बाहर से आकर प्रांत में रहने आने वालों के आंकड़े क्या कहते है। लिहाजा
इस मामले में महाराष्ट्र अव्वल नम्बर पर ठहरता है। महाराष्ट्र से बाहर जाने वालो
की अपेक्षा महाराष्ट्र आने वालो की संख्या 20 लाख 30 हजार से अधिक है। इसके बाद
दिल्ली (10 लाख 70 हजार) गुजरात (68 लाख) और हरियाणा (67 लाख) का नम्बर आता है।
उत्तर प्रदेश में जितने लोग बाहर से
आये उससे 20 लाख 60 हजार लोग ज्यादा बाहर गये। इसी तरह बिहार से जाने वालों की
तादाद बिहार आने वालों की तादाद से 10 लाख 70 हजार जयादा है। जाहिर है इस तादाद
में लोग पलायन कर रहे हों तो उनकी गिनती या हिसाब रख पाना बड़ा मुश्किल हो जाता
है। हालत ये है कि भारत सरकार के जनणगणना से संबंधित आकड़े भी पलायन की ठीक-ठीक
तस्वीर बयां नहीं कर पाते। कोई सरकारी एजेंसी इधर खेतिहर संकट या फिर मौसमी पलायन
को पहचानने और दर्ज करने के लिए कागज कलम संभाल रही होती है उधर लोग रोपाई-बुआई का
समय जानकर या तो दोबारा अपनी जगह पर लौट आ चुके होते है या फिर कहीं और जाने की
तैयारी में होते है। गन्ने की खेती ईट-भट्ïठïा उद्योग में रोजगार के लिए मजदूरों का
सामूहिक पलायन एक जानी मानी बात है। अगर जीविका के संकट के कारण कोई पलायन करता है
या फिर मान लें कि मौसमी पलायन ही कर रहा है तो इसका असर पलायन करने वाले परिवार
के बच्चों की पढ़ाई पर पड़ता है। इन वजहों से ऐसे परिवार के बालिग सदस्य चुनाव के
वक्त वोट डालने के अधिकार का प्रयोग नहीं कर पाते। वो चाहें जन्मस्थान पर हों या
फिर उस जगह पर जहां रोजगार के लिए जाना पड़ता है, गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों
को जो सुविधाएं मिली हैं वह भी हासिल करने से ऐसे परिवार वंचित रहते हैं। पलायन
मौसमी तर्ज पर हो या फिर जीविका की संकट की स्थिति में गहरी चोट दलितों और
आदिवासियों पर पड़ती है जो गरीबों के बीच सबसे गरीब की श्रेणी में आते हैं और
जिनके पास भौतिक या मानवीय संसाधन नाममात्र के होते हैं। यह बात खास तौर से आंध्र
प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्टï्र के सर्वाधिक पिछड़े और सिंचाई के
लिए मुख्यत: वर्षा पर आधारित जिलों पर लागू होती है। पलायन की सूरतेहाल में महिला
का खेतिहर मजदूर के रूप में और पुरुषों का असंगठित क्षेत्र में रोजगारी का कोई काम
खोजना एक आम बात है।
पूर्व राष्ट्रपति एवं मिसाइल मैन डॉ.
एपीजे अब्दुल कलाम कहा करते थे कि “शहरों को गांवों में ले जाकर ही
ग्रामीण पलायन पर रोक लगाई जा सकती है।” उनके इस कथन के पीछे यह कटु सत्य छिपा
है कि गांवों में शहरों की तुलना में 5 प्रतिशत आधारभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं
हैं। रोजगार और शिक्षा जैसी आवश्यकताओं की कमी के अलावा गांवों में बिजली, स्वच्छता, आवास, चिकित्सा, सड़क, संचार जैसी अनेक सुविधाएं या तो होती
ही नहीं और यदि होती हैं तो बहुत कम। स्कूलों, कॉलेजों तथा प्राथमिक चिकित्सालयों की
हालत बहुत खस्ता होती है। गांवों में बिजली पहुंचाने के अनेक प्रयासों के बावजूद
नियमित रूप से बिजली उपलब्ध नहीं रहती। इस प्रकार से गांवों से पलायन के कारण और
निवारण निम्न बताए गए हैं।
जीविका के परंपरागत स्रोत पर संकट आने
के कारण हो रहा है पलायन?
अगर पलायन जीविका के परंपरागत स्रोत पर
संकट आने के कारण हो रहा है तो इससे असंगठित क्षेत्र में उद्योगों के पनपने को
बढ़ावा मिलता है और शहरों में बड़ी बेतरतीबी से झुग्गी बस्तियों का विस्तार होता
है। छोटी और असंगठित क्षेत्र में पनपी फैक्ट्रियों के मालिक पलायन करके आये
मजदूरों से खास लगाव रखते है। क्योंकि एक तो ऐसे मजदूर कम मेहनताने पर काम करने को
तैयार रहते हैं दूसरे छोटी मोटी बातों को आधार बनाकर इनके काम से गैर हाजिर रहने
की भी संभावना कम होती है। ऐसे मजदूर ठेकेदार के कहने में होते हैं और स्थानीय
मजदूरों की तुलना में मोलभाव करने की इनकी ताकत भी कम होती है। मजदूरों की यह
कमजोरी और कम मेहनताना भले ही कुछ समय के लिए उद्योगों के फायदे में हो लेकिन आगे
चलकर देश की बढ़ोतरी की कथा में ऐसे मजदूरों की भागीदारी नहीं हो पाती। क्योंकि
उनके पास खरीदने की ताकत कम होती है और इसीलिए उपभोग की ताकत भी कम। जबकि बाजार
बढ़ते हुए उपभोग से ही बढ़ता है। इसी कारण अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि गांवों
से शहरों की तरफ पलायन तभी समृद्धि की राह खोज सकता है जब मजदूरों के लिए ज्यादा
मेहनताना पाने का आकर्षण हो और दूसरी तरफ गांवों से खदेडऩे वाली गरीबी हो। सरकारी
आंकड़े कुछ भी कहते रहें, कुछ विशेषज्ञ यह मानते हैं कि पलायन करने वालों की वास्तविक संख्या
आधिकारीक संख्या से 10 गुना ज्यादा हो तो कोई ताज्जुब नहीं।
गांवों
से पलायन के प्रमुख कारणः-
परम्परागत
जाति व्यवस्था का शिकंजा -
परम्परागत जाति व्यवस्था का शिकंजा
इतना मजबूत है कि शासन और प्रशासन भी सामूहिक अन्याय का मुकाबला करने वालों के
प्रति उदासीन बना रहता है। जैसाकि पिछले दिनों उत्तर भारत के कुछ राज्यों हरियाणा, उत्तर प्रदेश आदि में खाप पंचायतों के
अन्यायपूर्ण क्रूर आदेशों को देखने पर स्पष्ट हो जाता है जिसमें सड़ते और दबते रहने
की बजाय लोग गांव से पलायन करना पसंद करते हैं।
शहरों
में औद्योगिक इकाइयों की स्थापना-
औद्योगीकरण
शहरीकरण की पहली सीढ़ी है। आजादी के बाद भारत ने देश के आर्थिक विकास को बढ़ावा देने
के इरादे से छोटे-बड़े उद्योगों की स्थापना का अभियान चलाया। ये सभी उद्योग शहरों
में लगाए गए जिसके कारण ग्रामीण लोगों का रोजगार की तलाश एवं आजीविका के लिए शहरों
में पलायन करना आवश्यक हो गया।
नगरीय
चकाचौंध-
भारत में गांवों से शहर की ओर पलायन की
प्रवृत्ति बेहद ज्यादा है। जहां गांव में विद्यमान गरीबी, बेरोजगारी, कम मजदूरी, मौसमी बेरोजगारी, जाति और परम्परा पर आधारित सामाजिक
रुढ़ियां, अनुपयोगी
होती भूमि, वर्षा
का अभाव एवं प्राकृतिक प्रकोप इत्यादि कारणों ने न सिर्फ लोगों को बाहर भेजने की
प्रेरणा दी वही शहरों ने अपनी चकाचौंध सुविधाएं, युवाओं के सपने, रोजगार के अवसर, आर्थिक विषमता, निश्चित और अनवरत अवसरों में आकर्षित
करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस प्रकार पुरुष और महिलाओं के एक बड़े समूह ने गांव
से शहर की ओर पलायन किया है। वर्ष 2001 से 2011 तक की शहरी जनसंख्या में 5.16
प्रतिशत की वृद्धि हुई।
शिक्षा और साक्षरता का अभाव-
शिक्षा
और साक्षरता का अभाव पाया जाना ग्रामीण जीवन का एक बहुत बड़ा नकारात्मक पहलू है।
गांवों में न तो अच्छे स्कूल ही होते हैं और न ही वहां पर ग्रामीण बच्चों को आगे
बढ़ने के अवसर मिल पाते हैं। इस कारण हर ग्रामीण माता-पिता अपने बच्चों को अच्छी
शिक्षा प्रदान करने के लिए शहरी वातावरण की ओर पलायन करते हैं।
हालांकि
सरकारी एवं निजी तौर पर आज ग्रामीण शिक्षा को बढ़ाने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं
लेकिन जब रोजगार प्राप्ति एवं उच्च-स्तरीयता की बात आती है तो ग्रामीण परिवेश के
बच्चे शहरी बच्चों की तुलना में पिछड़ जाते हैं। ग्रामीण बच्चे अपने माता-पिता के
साथ गांव में रहने के कारण माता-पिता के परम्परागत कार्यों में हाथ बंटाने में लग
जाते हैं जिससे उन्हें उच्च शिक्षा के अवसर सुलभ नहीं हो पाते हैं। इस कारण
माता-पिता उन्हें शहर में ही दाखिला दिला कर शिक्षा देना चाहते हैं और फिर छात्र
शहरी चकाचौंध से प्रभावित होकर शहर में ही रहने के लिए प्रयास करता है जो पलायन का
एक प्रमुख कारण है।
रोजगार और मौलिक सुविधाओं का अभाव-
गांवों में कृषि भूमि का लगातार कम
होते जाना, जनसंख्या
बढ़ने, और
प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-नगरों की तरफ
जाना पड़ रहा है। गांवों में मौलिक आवश्कताओं की कमी भी पलायन का एक बड़ा कारण है।
गांवों में रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, आवास, सड़क, परिवहन जैसी अनेक सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम हैं। इन
बुनियादी कमियों के साथ-साथ गांवों में भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के चलते शोषण
और उत्पीड़न से तंग आकार भी बहुत से लोग शहरों का रुख कर लेते है।
गांवों से पलायन रोकने के प्रमुख सुझावः-
समानता और न्याय पर आधारित समाज की
स्थापना-
ग्रामीण पलायन रोकने के लिए सामाजिक
समानता एवं न्याय पर आधारित समाज की स्थापना करना अति आवश्यक है। इसलिए सभी विकास
योजनाओं में उपेक्षित वर्गों को विशेष रियायत दी जाए। इसके अलावा महिलाओं के लिए
स्वयंसहायता समूहों के जरिए विभिन्न व्यवसाय चलाने, स्वरोजगार प्रशिक्षण, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना
(वृद्धावस्था पेंशन योजना, विधवा पेंशन योजना, छात्रवृत्ति योजना, राष्ट्रीय परिवार लाभ योजना) जैसे अनेक कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं
जिनसे लाभ उठाकर गरीब तथा उपेक्षित वर्गों के लोग अपना तथा अपने परिवार का उत्थान
कर सकते हैं।
इस संदर्भ में मैं एक अपने अनुभव पर
आधारित प्रोजेक्ट के माध्यम से गांवों में चुने हुए जन प्रतिनिधियों की व्यवस्था
के बारे में जानकारी दे रहा हूं। हमने एक प्रोजेक्ट किया जिसमें ग्रामीण क्षेत्र
में चुने हुए जन-प्रतिनिधियों के बारे में जानकारी जुटानी थी मुख्य रूप से जो
ग्रामीण पंच बनाए गए हैं उनकी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षिक जानकारी प्राप्त
करनी थी। जिसमें पंचों ने अपनी व्यथा बड़े गम्भीर ढंग से उजागर की और बताया कि हम
पंच तो हैं लेकिन हमें सरकार से मिल रही नई योजनाओं के बारे में कोई जानकारी नहीं
और न ही कोई प्रशिक्षण की व्यवस्था है।
अधिकतर पंच अशिक्षित व्यक्ति एवं
महिलाएं बनाई गई हैं। और लोगों ने हमें कहा कि पंचों के लिए शैक्षिक योग्यता अवश्य
निर्धारित की जानी चाहिए तभी ग्रामीण विकास हो सकता है। कुछ लोगों ने यह भी बताया
कि हमारे साथ पंचायत में न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं किया जाता है और मात्र
जोर-जबर्दस्ती एवं दबाव डालकर प्रस्ताव पर हस्ताक्षर या अगूंठा लगवाया जाता है।
अतः यह सामाजिक असमानता एवं अन्याय ही तो है। इस कारण लोग राजनीतिक कार्यों से
विमुख होकर अपनी आजीविका में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। अतः इसका उचित समाधान
किया जाना चाहिए।
रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना-
सर्वप्रथम गांवों में रोजगार के अवसर
निरंतरता के साथ उपलब्ध कराए जाए जिससे लोगों को आर्थिक सुरक्षा तो मिलेगी साथ ही
वे स्वतः अपनी जीवनशैली में सुधार करेंगे। केंद्र सरकार द्वारा मनरेगा योजना 2
फरवरी, 2006
को देश के 200 जिलों में शुरू की गई। दूसरे चरण में 130 जिलों में एवं तीसरे चरण
में 1 अप्रैल, 2008
को देश के शेष 265 जिलों में मनरेगा कार्यक्रम चलाया गया जिससे ग्रामीणों को
रोजगार के अवसर सृजित हुए और गांवों से पलायन भी रुका है।
मौलिक सुविधाएं उपलब्ध करवाना-
ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों जैसी
सुविधाएं उपलब्ध कराई जाए जिसमें, परिवहन सुविधा, सड़क, चिकित्सालय, शिक्षण संस्थाएं, विद्युत आपूर्ति, पेयजल सुविधा, रोजगार तथा उचित न्याय व्यवस्था आदि शामिल हैं। गांवों की दशा
सुधारने के लिए एक अप्रैल, 2010 में लागू हुए शिक्षा का अधिकार कानून से इस समस्या के समाधान की
आशा की जा सकती है। इस कानून से गांवों के स्कूलों की स्थिति, अध्यापकों की उपस्थिति और बच्चों के
दाखिले में वृद्धि का लक्ष्य रखा गया है। सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से इस
कानून को लागू करके गांवों में शिक्षा का प्रकाश फैलने से रोजगार के अवसर बढ़ेंगे, वही असमानता, शोषण, भ्रष्टाचार तथा भेदभाव में कमी होगी
जिसके फलस्वरूप ग्रामीण जीवन बेहतर बनेगा। इस अभियान के तहत तीन लाख से अधिक नये
स्कूल खोले गए जिसमें आधे से अधिक ग्रामीण क्षेत्रों में खोले गए हैं।
भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की स्थापना-
लोक कल्याण करने एवं ग्रामीण पलायन
रोकने के लिए सरकार द्वारा योजना तो लागू की जाती है लेकिन ये योजनाएं भ्रष्ट
व्यक्तियों द्वारा हथिया ली जाती हैं जिससे उसका पूरा लाभ जनता को नहीं मिल पाता
है। ग्रामीण पंचायती राज क्षेत्र में इन योजनाओं की निगरानी के लिए व्यवस्था की
जानी चाहिए जैसा कि भीलवाड़ा (राजस्थान) में सर्वप्रथम “सामाजिक अंकेक्षण” की शुरुआत की गई। इससे ग्रामीणों में
विश्वास जगा है।
पूंजी आधारित खेती को प्रोत्साहन-
ग्रामीण क्षेत्रों में परम्परागत कृषि
के स्थान पर पूंजी आधारित व अधिक आय प्रदान करने वाली खेती को प्रोत्साहन दिया जाए
जिससे किसानों के साथ-साथ सीमांत किसानों और मजदूरों को भी ज्यादा से ज्यादा लाभ
हो सके। सिंचाई सुविधा, जल प्रबन्ध इत्यादि के माध्यम से कृषि भूमि क्षेत्र का विस्तार किया
जाए जिससे न केवल उत्पादन में वृद्धि होगी साथ ही आय में भी वृद्धि होगी और
किसानों में आत्मविश्वास व स्वाभिमान जागृत होगा जिससे ग्रामीण पलायन रुकेगा।
बेरोजगारों को प्रशिक्षण-
मजदूरों तथा अन्य बेरोजगार युवकों के
लिए स्वरोजगार हेतु वित्तीय सहायता एवं प्रशिक्षण की सुविधा तथा प्रशिक्षण केन्द्र
गांवों में खोले जाएं। रोजगार के वैकल्पिक साधन यथा बुनाई, हथकरघा, कुटीर उद्योग, साथ ही खाद्य प्रसंस्करण केन्द्र की
स्थापना की जाए।स्वयंसहायता समूह, सामूहिक रोजगार प्रशिक्षण, मजदूरों को शीघ्र मजदूरी तथा उनके
बच्चों को बेहतर स्वास्थ्य, शिक्षा तथा अन्य मनोरंजन की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं।
सभी राज्यों में मुख्यत:ग्रामीण
क्षेत्रों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुसंगठित एवं पारदर्शी बनाया जाए जिससे
लोगों को उचित दामों से खाद्य सुरक्षा व अनाज उपलब्ध हो सके और ग्रामीण पलायन रोका
जा सके।
सरकार
ने क्या किया?
ग्रामीणों का शहरों की ओर पलायन रोकने
और उन्हें गांव में ही रोजगार मुहैया कराने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकार की ओर
से विभिन्न योजनाएं चलाई जा रही हैं। भारत में ग्रामीण विकास मंत्रालय की प्रथम
प्राथमिकता ग्रामीण क्षेत्र का विकास और ग्रामीण भारत से गरीबी और भूखमरी हटाना
है। ग्रामीण क्षेत्रों में गांव और शहरी अन्तर कम करने, खाद्य सुरक्षा प्रदान करने और जनता को
मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए सामाजिक और आर्थिक आधार पर लोगों को सुदृढ़
करना जरूरी है। इसलिए सरकार की ओर से एक नई पहल की गई।
गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन को
रोकने के लिए पूर्व में अनेक प्रावधान किए हैं। सरकार की कोशिश है कि गांव के
लोगों को गांव में ही रोजगार मिले। उन्हें गांव में ही शहरों जैसी आधारभूत
सुविधाएं मिले। 2 फरवरी, 2006 को देश के 200 जिलों में “महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण
रोजगार गारंटी योजना” के लागू होने के बाद पंचायती राज व्यवस्था काफी सुदृढ़ हुई है। सबसे
ज्यादा फायदा यह हुआ है कि ग्रामीणों का पलायन रुका है। लोगों को घर बैठे काम मिल
रहा है और निर्धारित मजदूरी (119 रुपये वर्तमान में) भी। मजदूरों में इस बात की
खुशी है कि उन्हें काम के साथ ही सम्मान भी मिला है। कार्यस्थल पर उनकी आधारभूत
जरूरतों का भी ध्यान रखा गया है। उन्हें यह कहते हुए प्रसन्नता होती है कि “अब गांव-शहर एक साथ चलेंगे, देश हमारा आगे बढ़ेगा।”
निष्कर्ष
आजादी
के बाद पंचायती राज व्यवस्था में सामुदायिक विकास तथा योजनाबद्ध विकास की अन्य
अनेक योजनाओं के माध्यम से गांवों की हालत बेहतर बनाने और गांव वालों के लिए
रोजगार के अवसर जुटाने पर ध्यान केन्द्रित किया जाता रहा है। 73वें संविधान संशोधन
के जरिए पंचायती राज संस्थाओं को अधिक मजबूत तथा अधिकार-सम्पन्न बनाया गया और
ग्रामीण विकास में पंचायतों की भूमिका काफी बढ़ गई है। पंचायतों में महिलाओं व
उपेक्षित वर्गों के लिए आरक्षण से गांवों के विकास की प्रक्रिया में सभी वर्गों की
हिस्सेदारी होने लगी है। इस प्रकार से गांवों में शहरों जैसी बुनियादी जरूरतें
उपलब्ध करवाकर पलायन की प्रवृत्ति को सुलभ साधनों से रोका जा सकता है।
प्रवास
की स्थिति हमारे समाज में निरंतर चली आ रही है। व्यक्ति अपनी आजीविका, शिक्षा, रहन-सहन और
पारिवारिक स्तर को ऊंचा उठाने के लिए प्रवास कर रहे हैं। भारतीय समाज की मुख्य
विशेषता ‘संयुक्त परिवार’ है। जो कि परिवार, परम्परा और समाज
में संतुलन बनाये रखती है। यहीं आंकड़ों को देखें तो प्रवास के कारण संयुक्त
परिवारों में विघटन होता नजर आता है। आधुनिक समय में प्रवास तथा पलायन के कारण
पुराने सामाजिक तत्वों का कोई मूल्य नहीं रह गया। आधुनिकीकरण, नगरीकरण और औद्योगीकरण ने सामाजिक मूल्यों को बदल दिया है। संयुक्त
परिवार एकल परिवार में परिवर्तित होते जा रहे हैं। साथ ही प्रवास के चलते सामाजिक
विघटन, पारिवारिक विघटन और धार्मिक विघटन जैसी
समस्याओं का जन्म हो रहा है।
बहरहाल, अपने अध्ययन क्षेत्र के ब्लाक को ध्यान में रखकर प्रवास की बात करें
तो, आज के समय में ग्रामीण क्षेत्रों से
लघुकालिक प्रवास से ज्यादा दीर्घकालिक प्रवास हो रहा है। जिस कारण पारिवारिक विघटन
और सामाजिक विघटन को बढ़ावा मिल रहा है। कुछ गांव प्रवास के कारण समाप्त हो चुके
हैं तो अनेक गांव तो समाप्ति के कगार पर भी हैं। जिनको बचाने के लिए ठोस कदम उठाने
की आवश्यकता है, क्योंकि ग्रामीण
क्षेत्र भारतवर्ष का आधार हैं। अतः गांवों को प्राथमिकता देना अत्यन्त आवश्यक है।
शाही
श्रम आयोग ने इस संबंध में लिखा है कि ‘‘प्रवास
की प्रेरक शक्ति एक सिरे से आती है अर्थात् गांवों से औद्योगिक श्रमिक नागरिक जीवन
के आकर्षण से शहरों में नहीं जाता और न उसके प्रवास का कारण महत्वाकांक्षा ही होती
है। शहर स्वयं उसके लिए आकर्षण की वस्तु नहीं है और अपना गांव छोड़ने के समय उसके
मन में जीवन की आवश्यकताओं की प्राप्ति के अतिरिक्त और कोई भावना नहीं रहती। बहुत
ही कम औद्योगिक श्रमिक नगर में रहना चाहेंगे, यदि
उन्हें गांवों में जीवन-यापन के लिए पर्याप्त अन्न और वस्त्र मिल जाए। वह नगर की
ओर आकर्षित नहीं होते, अपितु अकेले
जाते हैं।’’ जिससे स्पष्ट
होता है कि जीवन-यापन हेतु ही ग्रामीण क्षेत्रों से प्रवास हो रहा है और गांव खाली
हो रहे हैं। जीवन-यापन के अन्तर्गत भोजन, वस्त्र, चिकित्सा, रोजगार, शिक्षा, आय के साधन, लघु/कुटीर उद्योग, सभी सुविधायें
आती हैं।
नोट- यह एक शोध है अर्थात इसे पूरा करने के लिए मैंने कई विद्वानों के शोधों से कुछ अंश लिए हैं। व कई वेबसाइट्स से भी कंटेंट लिया गया है।
नोट- यह एक शोध है अर्थात इसे पूरा करने के लिए मैंने कई विद्वानों के शोधों से कुछ अंश लिए हैं। व कई वेबसाइट्स से भी कंटेंट लिया गया है।
Thank you its very helpful 😄😊😊😊😊
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा हैं
ReplyDeleteIt supereb 👍👍👍 thanks for this essay ,very helpful during the exam time✌
ReplyDeleteबहुत ही शानदार लेकिन लेखन
ReplyDeleteबहुत ज्ञानवर्धक एवं सहायक। मैं आपके प्रति सदैव कृतज्ञ रहूँगा। धन्यवाद।
ReplyDeleteवाह अगया आप का comment अंततः ... बधाई
Delete