एक टंकणकार क्या खाता है, क्या कमाता है? इसके बारे में न जानो तो ही अच्छा है। फिलहाल तो आज हम आपको एक टंकणकार की आप बीती सुनाते हैं। दरअसल ये वाला टंकणकार काफी करीबी है। इससे लगभग हर रोज दिन के 2 बजे मुलाक़ात होती है।
तो पढ़िए एक टंकणकार की कहानी उसी की ज़ुबानी
मैं एक टंकणकार होने के साथ-साथ देश का एक जिम्मेदार नागरिक भी हूँ। जिम्मेदार इसलिए क्योंकि जब मैं टंकणकार बनने की और अग्रसर था तब मुझे जिम्मेदारी निभाने के लिए ही प्रेरित किया गया था। कहा गया था कि "तुम ही देश को संभाल सकोगे, तुम्हारे बलबूते देश चल रहा है, तुम पर बहुत जिम्मेदारी है देश को सही राह दिखाने की।" बस इसी जिम्मेदारी को निभाने के चक्कर में हम प्लास्टिक पीटने पर आ गए। हमको लगता था कि क्रांति के बारे में 'विद्या क्वेश्चन बैंक' में 12वीं की इग्जाम की तैयारी के लिए पढ़े तो बहुत हैं, क्या खुद से करने का मौका भी मिलेगा (जैसा कि हर युवा टंकणकार सोचता है)।
खैर अब क्रांति का भूत रोज़ सुबह खिड़की से धुप आते ही खिसक लेता है। वो कहते हैं न कि किसी से भी आँखे मिला लो लेकिन अपनी क्रश और सूर्य भगवान से आँखे नहीं मिला सकते। स्पेशली जब कंडीशन मेरे रूम वाली हो तो फिर क्या कहने। खैर, क्रांति का भूत शुरुआत के एक दो महीना में ही उतर गया था। अब कभी आता है तो चाय नाश्ता, बियर वगैराह पीकर चला जाता है। दरअसल हम ही नहीं रुकने देते उसे। खामखाँ खुद परेशान होगा हमको भी करेगा। इसलिए चिल्ल करते हैं हम दोनों। हाँ इस बीच कहीं गांव वगैरा जाते हैं तो हम उसे साथ जरूर ले जाते हैं। क्या है कि उसका रिश्ता हमारे गांव से कुछ ज्यादा ही ख़ास है। एक तरह से देखें तो क्रांति का भूत हमारी मम्मी को उनके मायके से मिली उस दान की बछिया की तरह है जिसके कभी दांत नहीं गिने जाते। हाँ तो कुलमिलाकर गांव में उस भूत का भौकाल फुल टाइट है।
खैर, मौजूद 'परिदृश्य' पर बात करते हैं। तो हम मतलब टंकणकार साब सुबह खिड़की वाली कड़क धूपनुमा रौशनी, मोबाइल अलार्म और मेड से झूठ बोलते हुए तशरीफ़ कमोड पर रख देते हैं। wifi कनेक्ट किया, पिड़ पिड़ पिड़ पिड़ की आवाज़ दो मिनट तक आती है। इस वक्त ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि इसका स्रोत कहाँ से है? मोबाइल नोटिफिकेशन या.........खैर छोडो क्या लेना देना।
बाहर निकले, देखा खाना बन गया है मेड जा चुकी है। लेकिन वो थोड़ी सी कॉफी की आदत है न तो नीचे जाए बिना पूरी होगी नहीं। दूध लेकर आये कॉफी बनाई, अब खड़े-खड़े केवल कॉफी ही थोडें न पियोगे! कुछ तो करेंगे? मोबाइल के सारी नोटिफिकेशन वॉशरूम में ही चेक कर लिया थे। अब नया कोई आया ही नहीं है। तो अब जाके एक असली टंकणकार की रोजमर्रा की जिंदगी शुरू होती है। मतलब की अब लैपटॉप खुलेगा। कल रात बिना शट डाउन किये ही सो गए थे न तो अब सबसे पहला बटन एंटर वाला दबाना होगा क्योंकि वो भी सोया हुआ है। स्क्रीन में दिव्य ज्योति वाला प्रकाश नजर आता है। अगर तुमने वॉलपेपर में अपना मनपसंद फ़ोटो लगा रखा है तो ज्यादा अच्छा है। जैसे की मैंने अपने भतीजे का लगा रखा है। क्या है कि अगर बच्चों की स्माइल देखकर दिन शुरू करो तो ज्यादा अच्छा होता है।
खैर इसके बाद नंबर आता है उस सतरंगी गोलाकार का जिसे ये दुनिया क्रोम कहती है गूगल क्रोम। उस पर डबल क्लिक करते ही एक टंकणकार की पूरी ज़िन्दगी का पिटारा खुल जाता है। अच्छा इस बात से मुझे बड़ी ख़ुशी होती है कि लोग अपनी जिंदगी को इतना फैला के रखते हैं की उन्हें समेटना मुश्किल हो जाता है लेकिन एक बेचारे टंकणकार की पूरी जिंदगी उस छोटे से गोलाकार में समाहित होती है।
टंकणकार उन टैब नुमा रास्तों के जरिये हज़ारों रिश्तेदारों (वेबसाइट्स) के चक्कर लगाता है। कोई रिश्तेदार काफी अच्छे होते हैं। उनके पास जरूरी सामान जल्दी उपलब्ध हो जाता है। इसके अलावा एक मामा का घर भी होता है लोग उसे ANI कहते हैं। यहां पर तुम्हें फ्री में सब मिलेगा। बाकी सारे रिश्तेदार (इंग्लिश वेबसाइट्स) एक टंकणकार के लिए ससुराल होती हैं। यहां पर मिलेगा तो सब कुछ लेकिन उसे हासिल करने के लिए जबर मेहनत करनी पड़ेगी। एक टंकणकार का परम् धर्म यही होता है कि वो कितनी आसानी और जल्दी से ससुराल से माल हासिल कर सके।
इतना सब कुछ बताते-बताते टंकणकार की कॉफी ख़त्म हो गई। मतलब अब काम शुरू हो गया। बस फिर क्या सिम्पल है। रिश्तेदारों के चक्कर काटो, सबसे ज्यादा ससुराल के ही काटने पड़ेंगे लिख के ले लो। खैर इतना सब कुछ करने के बाद भी टंकणकार आधी-आधी रात तक जागने के बाद थकता नहीं। वो बात अलग है कि सुबह नीचे से दूध लाने में उसका क्रांति का सपना दो बार दम घोंट के मर चुका होता है।
नोट- ये टंकणकार लगभग पिछले दो महीनों से work from home कर रहा है। इसलिए ज्यादातर अनुभव उसी पर आधारित है। ऑफिस गोइंग टंकणकारों का हाल इससे 33 प्रतिशत ज्यादा खराब है। इसलिये धैर्य से काम करें क्योंकि करने से ही होगा।
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