साधो, हमारी भी सुनो....




साधो, तुम तो कहते थे कि दिल्ली दिलवालों की है, दिल्ली का दिल बहुत बड़ा है, दिल्ली लोगों को खुद में समा लेती है, एक बार हमारी दिल्ली में आओ तो, लेकिन साधो हमारी सारी भ्रांतियां धीरे-धीरे दूर हो रही हैं। पिछले पांच दिनों से आम आदमी से खास आदमी बना बैठा हूँ साधो। पानी नाम का जो प्राणी है वो पता नहीं कहीं उड़ गया है या उड़ा दिया गया है। इस प्राणी के कारण किसी भी कमरे में रुकना दुसवार हो गया है। जहां भी बैठते हैं बस बदबू ही बदबू आती है। कारण आप जानते ही होंगे क्यों भाई साधो, अरे भाई पानी नहीं दोगे तो धुलेंगे काहे से, मतलब खुद की तो धुल सकते हैं लेकिन कमोट को काहे से फ्री करें।
गांव के हैंडपंप से नहाकर जो सुकून मिलता था उस सुकून को गंवाकर हमने पश्चिमी बाथ क्रिया को भी अपना लिया है, जिसे हमारे यहां कौआ स्नान भी कहते हैं। साधो पिछले पांच दिनों से अपना पिछवाड़ा विसलेरी के पानी से धुल रहे हैं, कुछ समझ रहे हो न। वो पानी जिसे आम आदमी पीने तक ही सीमित रखता है, हम पता नहीं क्या-क्या कर रहे हैं उस पानी का। आम आदमी वेचारा घड़े के पानी से काम चला सकता है लेकिन साधो यह सब तुम्हारी बदौलत है जो हमें कैम्फर जैसे पश्चिमी शुद्धिकृत यंत्र का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। कितना गलत कर रहे हैं हम उस यंत्र के साथ। खैर जो भी हो साधो तुम्हारी नजर न जा रही है हमारी समस्या पर। अभी तो कुछ नहीं कह रहे हो लेकिन फिर मत कहना जब हमारी धुलने की आदत में आपका फश्चिमीकृत यंत्र इस्तेमाल किया जाने लगे। लोगों को अच्छी चीजों को अपनाने की आदत होनी चाहिए कहीं यह बात हमारे लिए सही साबित न हो जाए। वैसे 80 रुपए रोज के सिर्फ अपनी धुलने के लिए खर्च कर रहे हैं। अब बाकी समस्याएं सुन लो-
जब पांच दिन से पिछवाड़ा धुलने के लिए तोहमत उठानी पड़ रही है तो आप समझ सकते हैं कि हम अपने बाकी सहयोगी अंगों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं या फिर उनके साथ दोहरा रवैया अपना रहे हैं। क्योंकि वो भी इस संकट के समय में हमारा उतना ही साथ दे रहे हैं जितना की और अंग। अंगों के बाद नंबर आता है हमारे तन की लाज बचाने वाले वस्त्रों का जिनके साथ तो घोर नाइंसाफी हो रही है क्योंकि इनके साथ जल ही जीवन है वाला कथन जुड़ा हुआ है अगर इन्हें जल नहीं दिया तो यह हमें कुछ और देंगे वो है बदबू। वैसे साधो तुमने जो उपाय बताया था उसी के सहारे पांच दिन काट दिए हैं। साधो वाला उपाय लगभग सभी अपना रहे हैं, अरे वही यार जिसे पश्चिमी खुशबू प्रदात्तरी बूंदे भी कहते हैं। डियो बोलते हैं लोग। लोकिन इसका भी लेप इतना ज्यादा हो रहा है कि अब वस्त्र सीधे मुह पर बोल रहे हैं कि बहुत हुआ सम्मानतो अब हम रोज सिक्का तो उछाल नहीं सकते की आज कपड़े धोएंगे या अंग। तो कृपया करके साधो माहराज हमारी इस अति गंभीर समस्या पर थोड़ी नजर दौड़ाएं और फटाक से कुछ ऐसा उपाय तलाशने में लग जाओ की आगे चलकर कोई मेरे जैसा ग्रामीण पृष्ठभूमि का व्यक्ति यह सोचने से बच सके की आज उसे क्या धुलना है?
(साधो, यह समस्या मेरे अकेले की नहीं है, बल्कि यह उन तमाम दिल्ली निवासी लोगों की है जो इस वक्त किसी दूसरे के किए की सजा भुगत रहे हैं।)
अमित कुमार

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