आज के डिजिटल भक्त !!!

'भक्त' शब्द को लेकर जो मेरी सोच थी वो धीरे धीरे बदल रही है। जब नासमझ थे और किसी पंथ का ज्ञान नहीं था तब तक तो यही लगता था कि भक्त सिर्फ भगवान के ही होते हैं। भक्तों का काम होता है कि वो रोज सुबह उठकर भगवान की पूजा अर्चना करके लोगों को अच्छी बातें बताए, लेकिन मैं शायद गलत था वो भक्त नहीं आस्थावान लोग होते हैं। असली भक्त तो अब देखने को मिल रहे हैं वो भी 'डिजिटल भक्त', वैसे देखा जाए तो अब के डिजिटल भक्त और पहले के आस्थावान लोगों में कोई खासा अंतर नहीं है, बस फर्क इतना सा है कि वो लोग सुबह मंदिर में पूजा पाठ करते हैं और यह डिजिटल भक्त सुबह से लेकर के रात में जब तक खुद हाथ से इनकी पूजा रूपी मोबाइल थाली छूट नहीं जाती तब तक अपनी सेवा प्रदान करते रहते हैं। इनके काम में कुत्ते जैसी लालायितता नजर आती है जब आप खाट पर बैठे रोटी खा रहें हों और सामने कुत्ता बैठा दुम हिला रहा हो कि कब खाने के अंत में आप कौरा (निवाला) डालें और हम झपक के लपक लें। ठीक उसी तरह यह भक्त तैयार रहते हैं कि कब कोई कुछ भी कहे और हम उसे लपक लें और अपने सभी फर्जी डिजिटल भक्तों के साथ मिलकर ट्रेंड करा दें ताकि सच्चाई पहुंचने तक इतन झूठ फैला दे कि अंधभक्त (डिजिटल भक्तों की सब-कैटेगरी) उसे सच मान ले और फिर नारेबाजी, धरना प्रदर्शन के साथ लोगों का ध्यान असली मुद्दे से हटाकर बनाए हुए मुद्दे पर ले जाया जा सके।
एक अहम बात कि इस तरह के भक्तों की प्रजाति सोशल मीडिया पर पाई जाती है। जो अपनी सेवा पूरे जी जान के साथ प्रदान करते हैं। इनकी भक्ति में इतनी शक्ति होती है कि अगर यह चाहें तो छोटे से गाँव चौराहों से लेकर बड़े शहर तक को मिनटों में हिला के रख सकते हैं। इन्हें खुद के घरवार के बारे में भले ही कुछ न पता हो कि मां-बाप को बुढ़ापे में दो जून की रोटी कहां से खिलाएंगे लेकिन देश के हर उस आदमी की खबर होती है जिसे इनके आका खुद की सेहत के लिए ठीक नहीं समझते। इन्हें खुद के हक का तो पता नहीं लेकिन अगड़ों-पिछड़ों के हक दिलाने में इन्हें महारत हासिल होती है। फिर चाहे उसके लिए इन्हें कोई भी हद क्यों न लांघनी पड़े।
और हां इनकी देशभक्ति पर तो आप शक कर ही नहीं सकते। अपनी देश भक्ति साबित करने के लिए इन्हें कभी मत आजमाना नहीं तो आप हार जाएंगे। क्योंकि इन्हें सच्ची देशभक्ति की ट्रेनिंग अलग से मुहैया कराई जाती है। हम आम लोगों की तरह सिर्फ पैदाइशी देशभक्ति इनको कम पड़ती है। इसीलिए इन्हें स्पेशल ट्रेनिंग दी जाती है, रंग बिरंगे कैंपों में ताकि इन्हें रंगों का भी उचित ज्ञान हो जाए कि हम किस रंग का प्रतिनिधित्व करते हैं।
वैसे इन डिजिटल भक्तों की कार्य क्षमता और लगनशीलता को देख के मैं हैरान रह जाता हूँ कि यह उन्हीं मां बाप के बच्चे हैं जिन्होंने इन्हें अपने सपनों से सजाकर भेजा है। लेकिन यह अपनी कार्य कुशलता कहीं और ही बर्बाद कर रहे हैं।
खैर बचके रहो इन भक्तों से क्योंकि आज कल यह लोग एक बीमारी से पीड़ित हैं जिसका नाम है "उड़ता तीर लेना"

अमित कुमार 😊

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