परंपराओं और धर्मों से दंगों का संबंध अप्रत्यक्ष ही है

पुराने हैदराबाद में एक जनवरी को एक युवा तेलगू कवि के घर पर सांप्रदायिक कट्टरपंथियों के एक दल ने हमला बोल दिया था। उन्होंने कवि, उसकी पत्नी और बच्चे को छुरा घोंप दिया। पत्नी की वहीं और कवि की अस्पताल जाते हुए मौत हो गई। अनाथ हुआ बच्चा अस्पताल में जिंदगी मौत के बीच में झूल रहा है। सांप्रदायिक उन्माद यह नहीं जानता कि उसका नतीजा क्या होता है। साप्रदायवादियों को यह नहीं पता था कि वह जिसकी हत्या कर रहे हैं वह उदीयमान तेलगू कवि....... रामायण के 17वें रूप की रचना कर रहा था। उस कवि का जन्म 2 जनवरी 1946 को तेलांगना स्थित महबूब नगर जिले के बड़े तहसील गांव कल्वाकुर्ती में हुआ था। उसकी मां गाव के स्कूल में अध्यापिका थीं। कवि ने भी यही पेशा अपनाया, वह कहता था कि अध्यापन सबसे अच्छा काम है। लेकिन वह प्राथमिक कक्षाओं का मैट्रिक पास अध्यापक बने रहने से ही संतुष्ट नहीं था। वह संस्कृत का विद्वान बनना चाहता था। लेकिन काशी विद्यापीठ ने उसका आवेदन स्वीकार नहीं किया...फिर उसकी मुलाकात पंडित गुंडेराव हरकारी नामक विद्वान से हुई जिन्होंने उसे स्व-शिक्षा के माध्यम से किसी भाषा को सीखने के गुर बताए....इस तरह निजी तौर पर अध्यन करते हुए उस कवि ने तीन भाषाओं..संस्कृत, तेलगू और हिंदी में एमए की डिग्री हासिल की। 
    केवल 12 साल की उम्र में ही उसने तेलगू की छोटी-छोटी कविताएं लिखना शुरू कर दी थीं। विवाह के बाद उसने चार काव्य ग्रंथ और तीन खंड काव्यों की रचना की। "विजय भेरी", "अस्त्रु धारू" और "भारती" के प्रकाशन के बाद उसे उमर अली शाह के बाद सबसे महत्वपूर्ण कवि समझा जाने लगा। विश्वनाथ सत्यनारायण ने एक तेलगू मुशायरे में उसका परिचय देते हुए कहा था ... "यहां अपनी उम्र के 70वें में चल रहे कवि जमा हैं इनके बीच इस 25 वर्ष के इस कवि को यहां नहीं होना चाहिए था, लेकिन अगर वह यहां है तो इसलिए कि वह जन्म लेते ही 50 वर्ष का हो चुका था।" ऐसी सराहना.... इसलिए और भी महत्वपूर्ण थी क्योंकि कवि तेलांगना क्षेत्र का था और गोदावरी जिले के साहित्यिक अभिजन तेलगना की "उल्लीगड्डी बंदिनकाई" तेलगू को नीची निगाह से देखते हैं।....इतनी डिग्रियां हांसिल कर लेने का बाद भी उस कवि में वही सीधा-साधा गांव का कवि बसा हुआ था...
उस युवा कवि ने रामयण के सभी रूपों वाल्मीकी, भास्कर, रंगनाथ, कंब, मोल्ला, कल्प वृक्ष, विश्वनाथ और तुलसी दास द्वारा रचित रूपों का अध्यन शुरू किया। उसका मानना था, "मैंने स्थानों और परिस्थितियों के वाल्मीकी द्वारा किए गए वर्णन की तर्कसंगत खामियों को ढूंढ़ लिया है। मैं अपनी रामायण लिखना चाहता हूँ.... मैं चांहता हूं कि इसे "यासीन" रामायण का नाम दिया जाए। यह भावी पीढ़ियों को मेरी भेंट होगी।" जब कट्टरपंथियों ने प्राणघाती हमला किया तब गुलाम यासीन नामक यह अध्यापक और कवि इसी रामायण की रचना कर रहा था... और आने वाली पीढ़ियों के लिए जो रामायण गुलाम यासीन छोंड़ जाना चाहता था.... वो अधूरी रह गई।  
    गुलाम यासीन कौन था? एक सेकुलर मुसलमान जो अपना असली धर्म नहीं जानता था? एक भला आदमी जिसका नाम मुसलमानों जैसा था और जिसका इस्तेमाल समर्पित समाज सुधारकों और भारतीय राज्य द्वारा विभिन्न धर्मों के बीच सेतु बनाने का काम कर सकता था? एक प्रच्छन्न हिंदू जिसे गलती से हिंदुओं ने मार डाला? या एक सच्चा मुसलमान जो अपनी धीर्मिक अनुभूतियों को दूसरे धर्मों की आस्थाओं के जरिए व्यक्त कर सकता था? या वह एक भारतीय था जिसकी हत्या ने हिंदू धर्म, इस्लाम और भारतीयता को एक साथ दरिद्र बना दिया?
    गाँधी जी होते तो इन सवालों के एकदम साफ उत्तर देते। पर सवाल यह है कि इन सवालों पर हमारा जबाब क्या होगा? 
अब केवल एक ही चीज पर विचार करना बाकी रह गया है। गुलाम यासीन का प्रकरण हमें मजबूर करता है कि हम सांप्रदायिक दंगों की समस्याओं पर गौर करें। भारत में धार्मिक हिंसा संबंधी तथ्यों के भढ़ते हुए भंडार पर नजर डालने से साफ हो जाता है कि परंपराओं और धर्मों से दंगों का संबंध अप्रत्यक्ष ही है। हालांकि आधुनिक भारतीयों की निगाह में सभी दंगे अप्रयाप्त आधुनिकीकरण का ही परिणाम होते हैं, पर हकीकत यह है कि ज्यादातर दंगे शहरी या अर्ध शहरी इलाकों में ही होते रहे हैं जहां देश की आबादी का केवल एक-चौथाई ही रहता है। शहरी भारत के भारत के भीतर भी दंगे होना भी काफी कुछ उद्योगीकरण, विस्थापन परंपरागत सामाजिक संबंधो और बस्तियों की तबाही के सापेक्ष ही सबित होता है।      
    (इंडियन एक्सप्रेस के 11 जनवरी1983 के एक अंक में एक पत्रकार द्वारा जीवनी परक टिप्पणी लिखी गई थी। मेरा ख्याल है कि जातीय सहिष्णुता संबंधी धर्मों  की आंतरिक क्षमता के ऊपर इसे सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति के रूप में लिया जा सकता है। विद्वान सेकुलर वादियों के लिए इस टिप्पणी का संक्षिप्त और थोड़ा सा संपादित रूप)

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