लोगों के डीएनए में समायी भ्रष्टाचारी के कारण ऐतिहासिक हैं।

शिखर पर राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व के खून में भ्रष्टाचार, धोखेबाजी, साजिशों और बेईमानी के एतिहासिक कारण हैं, जो उनके डीएनए में समाए हुए हैं। कोई चमत्कार ही इस विकृति को ठीक कर सकता है। अंग्रेजो ने मुगलों से सत्ता छीनी थी और उन भारतीयों के हांथो में थमा दी, जो 40 पीढ़ियों तक बेड़ियों में वंश चलाते आए। पांच सौ साल पहले बाहर से आए मुगलों के झुंड सिंहांसन लूटने के लिए लोदिओं पर पड़े। इसी सिंहासन के लिए लोदियों ने तुगलकों का खून बहाया। तुगलक खिल्जियों को मौत के घाट उतारकर सुलतान बने थे। खिलजियों ने गुलाम वंश के सुलतानों को कब्रों में सुलाकर दिल्ली पर कब्जा किया था। उनसे पहले एक खरीदे हुए गुलाम कुतबुद्दीन ऐबक को मैहम्मद गौरी ने 1193 में हिंदुस्तान बख्शीश में दे दिया था। इस तरह यह मुल्क माले गनीमत की शक्ल में बाहरी हमलावर लुटेरों के एक हांथ से दूसरे हांथ में जाता रहा। बीच-बीच में तैमूरलंग, नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली की लूटमार और कत्लेआम के रोंगटे कड़े कर देने वाले नजारे भी इसी बदकिस्मत मुल्क ने देखे। अंग्रेजों के अलावा फ्रेंच और पुर्तगालीयों ने भी अपना हिस्सा हड़पा। एक हजार साल का इतिहास सत्ता के श्खरों पर ताकतवरों की छीना-झपटी और लूटमार का है। 15 अगस्त 1947 को परंपरागत लूट के इस मलामाल मुल्क का बंटवारा दो शानदार शख्शियतों के हांथों में हो गया-पंडित जवाहर लाल नेहरू और मोहम्मद अली जिन्ना।
दोनों ने इसे अपनी-अपनी आवाम को आजादी कहा। सदियों से सोई पब्लिक भी यह अल्फाज सुनकर खुश हुई। लेकिन दुर्भाग्यवश जल्दी ही जनता जनार्दन की खुशी जाती रही, क्योंकि बाद में राजनीतिक दलों के नुमाइंदो और सर्वोच्च प्रशासनिक अफसरों से लेकर निचले स्तर के कर्मचारियों ने हजारों बार यह साबित किया कि उनके लिए इस देश की इज्जत आबरू के कोई मायने नहीं हैं। पद पर आने का मतलब  है अपने हित साधो। बड़े पद का मतलब है तगड़ा झपट्टा। हर हाल में सिर्फ उनके उल्लू सीधे होने चाहिए। इस पार्टी में हों या उस पार्टी में, इस दफ्तर में हों या उस दफ्तर में, दिल्ली में हों या राज्यों में, राजधानी में हो या तहसीलों में हों। अपनी कुर्सी बचाने और जेबें भरने के लिए वे कुछ भी दांव लगा सकते हैं। अपने देशी विदेशी-पूर्वज हुक्मरानों से उन्हें सत्ता के यही संस्कार विरासत में मिले हैं।

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