कमबख्त कॅमेडियन मिल रहे हैं या विलेन।

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जैसे सिनमा के परदे पर पत्थर दिल सामंत की शक्ल में प्राण सीढ़ियों से उतर रहे हों। हांथ में हंटर , सामने चंद बेबस और कमजोर किसान। थर-थर कांपते, कुपोषित सी काया, फिर प्राण की कड़क आवाज ‘इन्हें जिंदा रहने की क्या जरूरत है?’ प्राण की जगह अगर जीवन होते तो भी कमाल करते। दांत पीसते हुए जब यह संवाद अदा करेंगे तो लगेगा कि गरीब की जान ही ले लेंगे। जीवन और प्राण दोनों अब हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी अदा का जलवा देखिए किसानों की तड़पती जिंदगी में उनके लिए भी रोल निकल आया। कमबख्त कॅमेडियन मिल रहे हैं या विलेन। हीरो तो इस कहानी में कोई नजर ही नहीं आ रहा। जो भी कोई हीरो बनने की कोशिश करता है आगे चलकर विलेन बनना ही पसंद करता है। करे भी क्यों न कमबख्त पैसा चीज ही ऐसी है। अब फिल्मों को ही ले लीजिए लगभग सभी फिल्मों में विलेन को सबसे शक्तिशाली दिखाया जाता है, और हां पैसा भी अकूत होता है। तो भला कौन चाहेगा कि वही रोजमर्रा की जिंदगी जिए जिसमें रोज कोई न कोई अमरीशपुरी या प्राण सरीखे कैरेक्टर उनकी जिंदगी को दीमक की तरह चाटते रहे। बेचारा भोला-भाला किसान करे भी तो क्या करे उसे खेती-किसानी के अलावा और तो कुछ आता नहीं। बोचारा किसान हर दलाल को नेता समझने की भूल कर बैठता है। जो शायद आगे चलकर उसकी सबसे बड़ी भूल साबित होती है। लेकिन वो भी क्या करे उसे थोड़े ही पता है कि वो जिसे हीरो समझता है वही आगे चलकर विलेन का चोला पहनकर हीरो जैसी स्टाइल मारेगा। आज कल लोग फिल्मों में हीरो से ज्यादा विलेन की एक्टिंग की तारीफ करते नजर आते हैं। इससे एक बात तो साबित होती है कि लोग हीरो को सिर्फ उसके अंदाज और अच्छी मासूका के चलते पसंद करते हैं, लेकिन निजी जिंदगी वही शानो-शौकत वाली पसंद होती है जिसे विलेन बखूबी जीता है। अंत कैसा भी हो उसकी कोई परवाह नहीं है। तो बेचारा किसान क्या करे उसे तो इन दोनों में से कोई भी जिंगदी मुनासिब नहीं होती। बिलेन बनने की दौड़ में हीरो कहीं कोसों पीछे छूटते नजर आ रहे हैं। अब तो फिल्मों में भी महान से महान अभिनेता विलेन का रोल करने में नहीं हिचकता, बल्कि आगे चलकर और भी फिल्मों में विलेन बनने की इच्छा जाहिर करता है। खैर देखते रहिए विलेन बनने की इस होड़ में कोई हीरो बनना पसंद करता है कि नहीं खबरों के सहारे चलते रहिए शायद कोई आगे चलकर शायद कोई निकल आए।

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