सामाजिक बीमारी है खुले में शौंच


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जयपुर, 3,अक्टूबर:-खुले में शौंच से होने वाली बीमारियों से लगभग हम सभी वाकिफ हैं, इसके बाबजूद भी देश की आधी से ज्यादा आबादी खुले में शौंच को मजबूर है। लेकिन सरकार के आंकड़ों में जो तस्वीर दिखती है उससे लगता है कि सब कुछ ठीक जा रहा है। सुनिसेफ कि एक फील्ड विजिट के दौरान राजस्थान की राजधानी जयपुर व अलबर ग्रामीण जिले में गया जहां साफ सफाई की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है। अलवर ग्रामीण के मंगलबास गांव में बहुत ही सुंदर स्कूल है लेकिन गांव शहर के पास होने के बाबजूद भी जुड़ा हुआ नहीं है। स्कूल के कक्षा सात के छात्र रवि कुमार ने बताया “हमारे गांव में सरपंच को छोड़कर किसी के घर शौंचालय नही है, और स्कूल से जाने के बाद हम शौंच के लिए बाहर पहाड़ कि तरफ जाते हैं जो बहुत ही खतरनाक रास्ता है” ऐसे एक नहीं तमाम गांव हैं जहां लोग खुले में शौंच को लेकर जागरुक नहीं हैं।  जिन स्कूलों में गया वहां पर जो देखा वह वाकई में काबिले तारीफ है साफ सफाई के मामले में भी वहां के बच्चे काफी जागरुक थे। लेकिन दोनों जगह समस्या लगभग समान ही है मतलब कि बापस घर जान के बाद उन्हें शौंच इत्यादि के लिए बाहर ही जाना पड़ता है। 
एक तरफ सरकार नारा दे रही है कि “स्वच्छ भारत स्वच्छ विद्यालय” लेकिन दोनों की ही स्थिति दयनीय है। युनिसेफ के आंकड़ों के मुताबिक राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में 73 प्रतिशत जनसंख्या खुले में शौंच करती है। दक्षिणी सुदूर भू-भाग में हालात और भी भयावह हैं यह आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है जहां कि 90 प्रतिशत से ज्यादा जनसंख्या खुले में शौंच करती है। यहां के स्कूलों में 73 प्रतिशत शौंचालय उपयोग के लायक हैं। हाल ही में जारी विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 60 करोड़ लोग खुले में शौंच करते हैं। युनिसेफ की एक रिपोर्ट बताती है कि 23 प्रतिशत लड़कियां स्कूल बीच में ही छोड़ देती हैं क्योंकि स्कूलों में शौंचालय नहीं होते, और बाहर जाने पर उन्हें जिस समस्या का सामना करना पड़ता है उससे हम सभी बाकिफ हैं। 1000 बच्चे रोज मृत्यु को प्राप्त होते हैं डायरिया के चलते। विश्व का 60 प्रतिशत खुले में शौंच अकेले भारत में होता है।
सरकार स्वच्छ भारत मिशन के तहत एक लाख करोड़ रुपय 2017 तक खर्च करने की योजना बना चुकी है, इससे पहले पिछले 5 सालों में 45000 करोड़ रु खर्च किया जा चुका है। सरकार के आंकड़े हमेशा उसकी योजनओं के अनुकूल होते हैं लेकिन आंकड़ों को खुद के अनुकूल बनाने मात्र से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। जरूरत है जमीनी स्तर पर काम होने की।
अमित कुमार
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