मदर्स डे... सारी माएं इतनी स्ट्रोंग कैसे होती हैं?

मां के साथ बिताया गया हर दिन मदर्स डे होता है लेकिन आज लोगों के मुताबिक कुछ ज्यादा स्पेशल है। खैर जो भी हो.. हम मदर्स डे मनाने के लिए किसी खास दिन का इंतजार नहीं करते। लेकिन कोई कह रहा था कि ट्रेंडिंग में है... तो आज लिखने का मन हो रहा है उस औरत के बारे में जिसने खुद कभी स्कूल नहीं देखा लेकिन अपने बच्चों को गांव के दकियानुकूसी माहौल से बाहर निकालकर बहुत आगे पहुंचा दिया। 

कहानी शुरू करते हैं....
मेरा गांव बहुत ही अंधविश्वासी और पुराने खयालातों वाला गांव है। यहां पढ़ाई लोगों के लिए केवल वजीफा और मिड-डे मील तक ही सीमित है। सबसे बड़ा गांव का दुर्भाग्य ये है कि कोई एक दूसरे का भला नहीं चाहता। लोगों को लगता है कि अगर फलाने का लड़का पढ़ गया या डीएम कलट्टर बन गया तो उन्हें फांसी पर लटका देगा और यही वजह है कि लोग एक दूसरे की राहों में रोड़े अटकाते रहते हैं। अब ऐसे माहौल में आप शिक्षा की बात तो छोड़ो बच्चों में एक दूसरे के प्रति प्यार भी नहीं पनप पाता। लेकिन फिर भी मेरे मां-बाप ने हमें पढ़ाने के लिेए सब कुछ दांव पर लगाकर दिल्ली भेजा। और ये कोई अश्चर्य नहीं है कि मैं अपने गांव इकलौता व्यक्ति हूं जो दिल्ली केवल पढ़ने के उद्देश्य से आया। इससे पहले जो भी दो चार लोग दिल्ली आए तो वे केवल फैक्ट्री कारखानों में मजदूरी करने ही आए थे। वो भी किसी ठेंकेदार के सहारे क्योंकि उन्हें अपने जिले का रास्ता नहीं पता है। 

मेरी मां पढ़ना-लिखन नहीं जानती हैं जानती लेकिन मेरे लिए वो दुनिया की सबसे पढ़ी लिखी औरत हैं। गांव में गजब की राजनीति होती है अगर उससे किसी ने मुझे वाकिफ करवाया तो वो मेरी मां ही है। गांव में लोगों को किसी ने बता दिया कि अगर किसी के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज हो जाता है तो वह सरकारी नौकरी के लायक नहीं रहता। इसी को ध्यान में रखते हुए लोगों को लड़ाई का बड़ा चाव रहता है। बात बोले पर थाने का मुंह कर लेते हैं भले ही उन्हें क ख ग भी न पता हो लेकिन एफआईआर दर्ज कराने में बहुत आगे रहते हैं। मेरी मां ने इसी डर से मुझे गांव से बाहर रखा। गांव में किसी से भी कितना भी झगड़ा हुआ हो उन्होंने मुझे कभी नहीं बताया। क्योंकि लड़ाई-झगड़े वाले माहौल में कितना भी खुद को शांत रखने की कोशिश करो हो नहीं पाता। 

मम्मी बता रहीं थी कि मेरा जन्म भी नहीं हुआ था तब एक बार मेरे पिता जी ने वन विभाग में नौकरी के लिए अप्लाई किया था। वहां से नौकरी का ऑफर लेटर भी आया था लेकिन लेटर मिला डेट निकल जाने के 10 बाद। क्योंकि डाकिए ने वो लेटर गांव के मास्टर साब को दिया था और मास्टर साब ने खोलकर पढ़ा और अपने पास रख लिया। मास्टर साब को डर था कि फलाना सरकारी नौकर हो जाएगा तो उन्हें फांसी पर चढ़ा देगा। नौकरी हाथ से जाने के बाद पिता ने ता-उम्र प्राइवेट नौकरी कर हम भाइयों को पढ़ाया। जिंदगी भर गांव से बाहर रहने वाले मेरे पिता जी जब गांव आए तो भी उन्हें आराम नहीं मिला। पिता जी को कैंसर हो गया। मुझे याद है जब मैं छोटा था तब मम्मी पिता से कहती थी कि एक दिन ये बच्चे हमें दुनिया का सारा सुख देंगे। लेकिन दुर्भाग्य से पिता जी ने साथ रास्ते में ही छोड़ दिया। अभी जब पिता जी के देहांत के समय मैं घर गया तो वापस दिल्ली कभी न आने की कसम खाई थी। क्योंकि जिंदगी भर अपने बच्चों के लिए त्याग करने वाले मेरे पिता जी जब दुनिया छोड़ रहे थे तो उनका लाडला बेटा उनके पास नहीं था। इसी डर से मैं हमेशा मां के साथ रहना चाहता हूं। लेकिन पता नहीं किस मिट्टी की बनी होती हैं माएं? कहां से आती है इतनी सहने की शक्ति? वो मां थी जिसने वापस मुझे जबरदस्ती दिल्ली भेजा। मुझे नहीं लगता दुनिया का कोई भी इंसान मां के जितना स्ट्रोंग होता है। ऐसे माहौल के बाद भी फेमिनस्टें झंडा बुलंद कर रही हैं कि मां ही त्याग की मूर्ति क्यों बने... तो हसी आती है। सोच सकते हो कि लड़कों को पढ़ाने के लिए ये हालात हैं तो लड़कियों का क्या होगा? आज सोशल मीडिया पर तमाम फेमिनिस्टों की क्रांती देखकर हसी आती है। सोशल मीडिया से निकलकर कभी गांवों की सैर करके देखो.. सारे तर्क धरे के धरे रह जाएंगे। लोगों के दिमाग पर मोटा चमड़ा चढ़ा हुआ है। कुछ घुसता ही नहीं। 


किस्से बहुत हैं... लेकिन ये उन्हें लिखने के लिए ये जिंदगी बहुत छोटी है। 

Comments