पत्रकार होना अपने आप में एक बेरोजगारी है!!

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इंटरमीडिएट के बाद ही सुना था कि पत्रकार बनने के लिए भी पढ़ाई करनी पड़ती है. क्योंकि इससे पहले तो यही लगता था कि पत्रकार तो कोई भी बन सकता है बस उसे बक बक करना आता हो. वकलोली भी थर्ड क्लास की, क्योंकि मुझे जिन पत्रकारों से मिलने का मौका मिला था उन्हें देख कर तो कोई भी उपनी खुपड़िया खुजिया-खुजिया कर बात को बात से जोड़ने की नाकाम कोशिश करता, दरअसल यह बात हमें बाद में पता लगी की वो वेचारे पक्के-पक्के पत्रकार नहीं बल्कि कच्चे-कच्चे पत्रकार अर्थात स्ट्रिंगर थे. खैर पहले तो उन्हें देख कर थोड़ा अजीब सा लगता था क्योंकि पत्रकार के नाम से जो दृश्य मेरे अंदर बनता था उसमें वही फिल्मों वाला पत्रकार सामने आता था बेचारा बेबस पत्रकार जिसके घर में एक या दो बेटियां हैं जिनकी शादी के लिए दिन रात ईमानदारी से मेहनत कर पैसे कमा रहा है, एक दिन विलेन को या उसके किसी गुर्गे को गलत काम करते हुए रंगे हाथ पकड़ लेता है या फिर उसकी तस्वीर खींच लेता है, फिर बाद में विलेन उस वेचारे पत्रकार को पकड़ता है जो रात में देर से अपनी प्रेस से लौट रहा होता है. पहले तो उस पत्रकार को धमकाया जाता है कि उसके घर में जवान बेटियां हैं कम से कम उनका ही ख्याल कर ले फिर ज्यादा ईमानदारी दिखाने पर उस पत्रकर को मार दिया जाता है जिसकी लाश का भी पती नहीं लगता. और फिर इसके आगे की कोई भी घटना फिल्म में शायद नहीं दिखाई जाती है. क्योंकि फिल्मों के मुताबिक उस वक्त एक ही पत्रकार व प्रेस रही होगी जो उसके मरने के साथ ही खत्म हो गई.
लेकिन उस वक्त मेरी दुविधा यह थी की फिल्मों वाले पत्रकार और असली (कच्चे-कच्चे) पत्रकार क्या वास्तव में एक जैसे ही होते हैं, क्योंकि इससे पहले पुलिस को देख चुके थे जो वाकई में फिल्मों वाली पुलिस की तरह ही होती है. बल्कि उनसे भी चार पैर आगे. खैर जो भी हो एक बात बहुत प्रचलित थी और शायद गांवों में अभी भी है कि पत्रकार कहीं भी आ जा सकते हैं उन्हें कोई भी नहीं रोंक सकता. सबसे मजेदार बात यह थी कि उन्हें देखकर जिलाधिकारी भी अपनी कुर्सी छोंड़ देता है. मेरे जैसे जानवर चराने वाले ठेंठ देहाती लड़के के लिए तो यह बहुत बड़ी बात थी क्योंकि हमारे जैसे लौंडे को तो मेले में बीसीआर ही बिना टिकट के बड़ी मुश्किल से देखने को मिलता था. वो भी टिकट कलेक्टर को देखते ही आधी फिल्म छोंड़कर ही भागना पड़ता था. लेकिन मुझे लगता है कि गांव का अधिकतर लड़का अगर पत्रकार बनना चाहता है तो उसके पीछे कहीं न कहीं यह एक कारण जरूर होता है कि पत्रकार बनकर वो बहुत पावरफुल हो जाएगा. फिर पूरे एरिया में उसकी धमक हो जाएगी. लोग उससे दबेंगे, उसकी बात मानेंगे, बला बला बला....सच कहूं तो मेरे अंदर भी पत्रकारिता का भूत यही सब सोच कर आया था. हालांकि कारण और भी है कि मैंने इंटरमीडिएट कला से किया था तो मेरे पास बीए करने के अलावा कोई दूसरा आप्शन नहीं था और बीए भी घर बैठे-बैठ करना था मतलब प्राइवेट. फिर किसी ने बताया कि एक पड़ोस में संस्थान है जो पत्रकारिता का कोर्स करवाता है किसी भी पृष्ठभूमि का छात्र वह कोर्स कर सकता है तो फिर मैंने वही कर लिया मतलब बीजेएमसी. खैर छोंड़ो बहुत लंबी कहानी है बाद में कभी फुर्सत में लिखूंगा.
हम बात कर रहे थे बेरोजगार पत्रकारों की भौकाल सेट करने वाले पत्रकारों की, वैसे तो अब दो तरह के बेरोजगार पत्रकार हैं एक तो स्ट्रिंगर और दूसरे लोकल संवाददाता. एक मजे की बात और कि स्ट्रिंगरों की भी दो कैटेगरी होती हैं. एक वो होते हैं जो अपने किसी करीबी लेकिन असली पत्रकार की मदद से मीडिया संस्थानों में चमचागिरी कर रहे हैं. और दूसरे वो जो बेचारे दिल से पत्रकारिता करना चाहते हैं लेकिन संपादक जी की चाटुकरिता नहीं कर पाते और दूरदराज के गांवो में असली पत्रकार बनने की चांह में भटकते रहते हैं. यह दूसरी कैटेगरी वाले पत्रकार पहली कैटेगरी वालों की बजह से बराबर की गालियां खाते हैं. यह बेचारे अपनी मासिक तनख्वाह के भरोसे ही साल काट डालते है लेकिन वो जो चमचा टाइप स्ट्रिंगर होते हैं वो किसी बड़ी बीट के बड़े पत्रकार जितनी तनख्वाह हांसिल कर लेते हैं. लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अखबारों के लोकल, देहात के संस्करण इन्हीं स्ट्रिंगरों की बजह से छप पाते हैं. इसके बाबजूद मैं इन्हें बेरोजगार पत्रकार कह रहा हूं इसकी बजह साफ है कि इन्हें खुद भरोसा नहीं होता है कि कब संस्थान इनके पिछवाड़े पर लात मार कर बाहर कर दे. अगर इनके साथ या इनके किसी परिवार के साथ कुछ अनहोनी होती है तो मुझे नहीं लगता कि इनका संस्थान इनको सपोर्ट करेगा. लगभग यही हाल है लोकल संवाददाता का, लेकिन इनके साथ एक प्लस प्वाइंट यह भी है कि यह हमेशा डबल घोड़े की सवारी करते हैं. तो इनका रिस्क तोड़ा कम होता है. मुझे इन लोगों को बहुत करीब से जानने का मौका मिलता रहा है. सबसे पहले तो अपने ब्लाक, तहसील, थाने आदि लोकल जगहों पर जहां मैंने इन्हें एक-एक बींड़ी को रिरियाते हुए देखा है. औऱ फिर विभिन्न मीडिया संस्थानों में इंटर्नशिप के दोरान इन से रूबरू होने का मौका मिला जहां डेस्क इंचार्ज की भली-बुरी गालियां खाते हुए भी देखा है. और हां अगर आप नए-नए पत्रकार बने हैं तो कम से कम एक साल तक आप में और स्ट्रिंगर में कोई फर्क नहीं माना जाएगा फिर चाहें आप कितने भी बड़े मीडिया संस्थान से क्यों न पढ़ें हों. आपमें चाहें कितना भी पत्रकारिता का टैलेंट क्यों न भरा हो, लेकिन मीडिया की नथ उतरवाई की रस्म हर हाल में पूरी करनी होगी जिसका समय अंतराल एक साल से कम होना असंभव है.
जैसा की मैं ऊपर बता चुका हूं कि बेरोजगार पत्रकार यानी स्ट्रिंगर दो तरह के होते हैं इनमें से भले ही आप सभी की संवेदनाएं दूसरी कैटेगरी वालों के साथ हों लेकिन मैं पहली कैटेगरी वालों के सात खड़े होना चाहूंगा. क्योंकि मौजूदा संदर्भ में पत्रकारिता करने का वही इकलौता एक माध्यम वचा है जो पहली कैटेगरी के स्ट्रिंगर इस्तेमाल कर रहे हैं मतलब चाटुकारिती. क्योंकि चाटुकारिता आप को मीडिया जगत में लंबी रेस का घोड़ा बनाने में मदद करती है.

और हां चलते-चलते एक फ्री की एडवाइज अपने व्यक्तिगत अनुभव से और देना चाहूंगा कि अगर कोई वाकई में दिल से पत्रकारिता करना चाहता तो बीए के करने के बाद ही करे. लेकिन हां एक शर्त है कि बीए की डिग्री भी गधे की डिग्री समझकर न करे, बल्कि पत्रकारिता की डिग्री समझकर करे. मेरी तरह फिजूल में पैसा खर्च करके बीजेएमसी, या कोई अन्य कामर्शियल पत्रकारिता कोर्स न करे. कसम से बहुत ठगते हैं रे......

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