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वास्तव में कुपोषण बहुत सारे सामाजिक-राजनैतिक कारणों का परिणाम है। जब भूख और गरीबी राजनैतिक एजेडा की प्राथमिकता नहीं होती तो बड़ी तादाद में कुपोषण सतह पर उभरता है। भारत का उदाहरण ले जहां कुपोषण उसके पड़ोसी अधिक गरीब और कम विकसित पड़ोसीयों जैसे बांगलादेश और नेपाल से भी अधिक है। बंगलादेश में शिशु मृत्युदर 48 प्रति हजार है जबकि इसकी तुलना में भारत में यह 67 प्रति हजार है। यहां तक की यह उप सहारा अफ्रीकी देशों से भी अधिक है। भारत में कुपोषण का दर लगभग 55 प्रतिशत है जबकि उप सहारीय अफ्रीका में यह 27 प्रतिशत के आसपास है।
कुपोषण है क्या बला?
यह एक ऐस चक्र है जिसके चंगुल में बच्चे अपनी मां के गर्भ में ही फंस जाते हैं। उनके जीवन की नियति दुनिया में जन्म लेने के पहले ही तय हो जाती है। यह नियति लिखी जाती है गरीबी और भुखमरी की स्याही से। इसका रंग स्याह उदास होता है और स्थिति गंभीर होने पर जीवन में आशा की किरणें भी नहीं पनप पाती हैं। कुपोषण के मायने होते हैं आयु और शरीर के अनुरूप पर्याप्त शारीरिक विकास न होना, एक स्तर के बाद यह मानसिक विकास की प्रक्रिया को भी अवरूध्द करने लगता है। बहुत छोटे बच्चों खासतौर पर जन्म से लेकर 5 वर्ष की आयु तक के बच्चों को भोजन के जरिये पर्याप्त पोषण आहार न मिलने के कारण उनमें कुपोषण की समस्या जन्म ले लेती है। इसके परिणाम स्वरूप बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता का हास होता है और छोटी-छोटी बीमारियां उनकी मृत्यु का कारण बन जाती हैं। जिन क्षेत्रों में अत्याधिक अल्प-पोषण है वहां कुपोषित महिलायें या किशोरी बालिकायें उन बच्चों को जन्म देती हैं जो पैदा होते ही वृद्वाधित या पतले होते हैं। इस प्रकार अल्प पोषण एक पीढ़ी तक खौफनाक उत्त राधिकार के रूप में हस्तांणतरित होता है। ये बच्चे आने वाले वर्षों मे वृद्धि की भरपाई नहीं कर पाते। वे जल्द ही बीमार होने, देर से स्कूल में प्रवेश करने, सीख नहीं पाने की संभावना से ग्रसित होते हैं। इस प्रकार कुपोषण एक भयंकर ‘टाईम बम’ है (विश्व बैंक)।
अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ बनता जा रहा है कुपोषण
कुपोषण के परिणाम स्वरूप वृध्दि बाधिता, मृत्यु, कम दक्षता और 15 पाइंट तक आईक्यू का नुकसान होता है। सबसे भयंकर परिणाम इसके द्वारा जनित आर्थिक नुकसान होता है। कुपोषण के कारण मानव उत्पादकता 10-15 प्रतिशत तक कम हो जाती है जो सकल घरेलू उत्पाद को 5-10 प्रतिशत तक कम कर सकता है। कुपोषण के कारण बड़ी तादाद में बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। कुपोषित बच्चे घटी हुई सिखने की क्षमता के कारण खुद को स्कूल में रोक नहीं पाते। स्कूल से बाहर वे सामाजिक उपेक्षा तथा घटी हुई कमाऊ क्षमता तथा जीवन पर्यंत शोषण के शिकार हो जाते है। इस कारण बड़ी संख्या में बच्चें बाल श्रमिक या बाल वैश्यावृत्ति के लिए मजबूर हो जाते हैं। बड़े होने पर वे अकुशल मजदूरों की लम्बी कतार में जुड़ जाते हैं जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ बनता है।
कुपोषण घरेलू खाद्य असुरक्षा का सीधा परिणाम है
सामान्य रूप में खाद्य सुरक्षा का अर्थ है ''सब तक खाद्य की पहुंच, हर समय खाद्य की पहुंच और सक्रिय और स्वस्थ्य जीवन के लिए पर्याप्त खाद्य''। जब इनमें से एक या सारे घटक कम हो जाते हैं तो परिवार खाद्य असुरक्षा में डूब जाते है। खाद्य सुरक्षा सरकार की नीतियों और प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है। भारत का उदाहरण ले जहां सरकार खाद्यान्न के ढेर पर बैठती है (एक अनुमान के अनुसार यदि बोरियों को एक के उपर एक रखा जाए तो आप चांद तक पैदल आ-जा सकते हैं)। पर उपयुक्त नीतियों के अभाव में यह जरूरत मंदों तक नहीं पहुंच पाता है। अनाज भण्डारण के अभाव में सड़ता है, चूहों द्वारा नष्ट होता है या समुद्रों में डुबाया जाता है पर जन संख्या का बड़ा भाग भूखे पेट सोता है। खाद्य सुरक्षा बिल पास तो हो गया लेकिन लगता है कि बिल को बिल में ही छोंड़ दिया गया है? क्या फायदा मिल रहा लोगों को? इसका किसी को कुछ पता नहीं है।
कुपोषण इस प्रकार एक जटिल समस्या है। घरेलू खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना आवश्यक है और यह तभी संभव है जब गरीब समर्थक नीतियां बनाई जाए जो कुपोषण और भूख को समाप्त करने के प्रति लक्षित हों। हम ब्राजील से सीख सकते हैं जहां भूख और कुपोषण को राष्ट्रीय लज्जा माना जाता है। वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में जहां गरीबों के कल्याण को नजर अंदाज किया जाता है, खाद्य असरुक्षा बढ़ने के आसार नजर आते हैं। हम किस प्रकार सरकार के निर्णय को स्वीकार कर सकते है जब वह लाखों टन अनाज पशु आहार के लिए निर्यात करती है और महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में कुपोषण से मौतों की मूक दर्शक बनी रहती है। आज के समय में किसानों को खाद्यान्न से हटकर नगदी फसलों के उत्पादन को बढ़ावा देने के कारण खाद्य संकट और गहरा सकता है और देश को फिर से खाद्यान्नों के लिए दूसरों पर निर्भर होना पड़ सकता है। हाल ही में जनवितरण प्रणाली को समाप्त करने के सरकार के प्रयास इस ओर इशारा करते हैं। कुपोषण कार्यक्रमों और गतिविधियों से नहीं रूक सकता है। एक मजबूत जन संपर्क और पहल जरूरी है। जब तक खाद्य सुरक्षा के लिये दूरगामी नीतियां निर्धारित न हो और बच्चों को नीति निर्धारण तथा बजट आवंटन में प्राथमिकता न दी जाए तो कुपोषण के निवारण में अधिक प्रगति संभव नहीं है।
सवाल यह भी है!
बच्चों के जीवन के अधिकार का सबसे बुनियादी सवाल है, जिसके लिए वे समाज और राज्य पर निर्भर हैं। यदि वे जिन्दा रह पाए तो ही स्कूल जा पायेंगे? फिर दूसरा सवाल है कि उनका जीवन सम्मानजनक और गरिमामय होगा या नहीं? शारीरिक-मानसिक विकलांगता हमेशा से बच्चों के जीवन के लिए चुनौती बनते रहे हैं।
आंकड़ों में कुपोषण
राज्य कुपोषित बच्चे अतिकुपोषित बच्चे
बिहार 82.12 25.94
ओडिसा 50.43 0.72
दिल्ली 49.91 0.03
आंध्र प्रदेश 48.72 0.08
राजस्थान 43.13 0.33
हरियाणा 42.95 0.05
उत्तर प्रदेश 40.93 0.21
झारखंड 40.00 0.70
कर्नाटक 39.50 2.84
गुजरात 38.77 4.56
केरल 36.92 0.08
पश्चिम बंगाल 36.92 4.08
त्रिपुरा 36.89 0.35
तमिलनाडू 35.22 0.02
पंजाब 33.63 0.05
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