आपकी खुशियां हमारे दु:ख का कारण बन सकती हैं।


बेर सराय के लोगों के नाम मेरा खुला खत-
रोज शाम होते ही ढोल-नगाड़े, नाच-गाना, जोर-जोर से सीटियां आदि सब सुनने में थोड़ा अच्छा लगता है क्योंकि यह सब किसी खुशी का प्रतीक है। गांव में तो महीने साल बीत जाते थे ढोल-नगाड़े बजने में क्योंकि हम किसानों को खुशियां बहुत कम ही मौकों पर नसीब होती हैं। एक तो जब आपका लड़का पढ़-लिख कर किसी अच्छे ओहदे पर पहुंच जाए या फिर आपकी बेटी की शादी किसी अच्छे घर में हो जाए और नहीं तो फसल कटने के समय अच्छी पैदावार निकल आए बस यही मुख्य कारण होते हैं गांव के लोगों में खुशी के। हाँ अगर कोई छोटी सोच का व्यक्ति है तो उसके यहां लड़के के जन्म को सबसे बड़ी खुशी माना जाता है अगर तुलना करें लड़की के जन्म से तो। लेकिन आज मैं यहां बात करूंगा दिल्ली के उस छोटे से गांव ‘बेर सराय’ की जहां लोगों के घरों में खुशियां थैला नहीं बल्कि ट्रक भरकर आती हैं। पता नहीं ऐसा क्या होता है यहां कि लोग रोज शाम को बड़े-बड़े ढोल-नगाड़े लेकर घर-घर धूम-धड़ाका कर के पहुंच जाते हैं। फिर उस घर की सारी महिलाएं घर से बाहर निकल कर खूब हचक के नाचती हैं। नगाड़े वालों के साथ कुछ लड़के भी मौजूद रहते हैं जो उन औरतों पर खूब पैसे भी उड़ाते हैं। और साथ में नाचते भी हैं। वैसे आपको बता दें कि बेर सराय मात्र नाम का गांव है लेकिन यहां की सारी हरकतें किसी टाप क्लास शहर के तरह ही होती हैं।
बेर सराय आईआईटी दिल्ली, जेएनयू, आईआईएमसी, एनआईआई जैसे महत्वपूर्ण संस्थानों के केन्द्र में बसा हुआ है। अब ऐसे में इन संस्थानों में पढ़ने वाला छात्र या तो मुनिरिका, कटवरिया सराय या फिर बेर सराय में ही रूम लेता है किराए पर। और जहां तक मुझे पता है यहां का हर घर किराए पर उठा हुआ है। मीलों दूर अपने घर से बच्चे यहां पढ़ने आते हैं कि कुछ अच्छा काम करके जाएं लेकिन यहां ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब यह ढोल-नगाड़े सिर में दर्द न कर दें। खुशी मनाने का एक तरीका होता है। गांवों में तो अगर किसी के घर में कुछ गलत घट जाए तो लोग पूरा दिन मोबाइल नहीं बजाते, औऱ यहां तो लोगों को किसी की परवाह ही नहीं है। बस खुद से मतलब है। अरे भाई पता नहीं कब किसका कैसा रिजल्ट आया, क्या हुआ बेचारा फेल हुआ या पास हुआ या किसी नौकरी से निकाला गया या किसी कम्पटीशन में रैंक अच्छी नहीं आई, ऐसी तमाम तरह की समस्याएं होती हैं। अपनी खुशी मनाने में यहां लोग इतने मशगूल रहते हैं कि भूल जाते हैं कि यहां पर ऐसे लोग भी रहते हैं जो घरों से हजारों कोसो मील  दूर कुछ सपने लिए पड़े हैं। पिछले 6 महीने से तो मैं रह रहा हूं यहां लेकिन मुझे नहीं लगता कि कोई भी दिन ऐसा गुजरा हो जब यहां इतना सारा शोर-शराबा न होता हो। दो दिन पहले कि बात है मेरे सिर में दर्द हो रहा था मैं सिर दर्द की दवा खाकर आराम करने को जैसे ही लेटा कि आवाज आना शुरू हो गया धड़म-धड़म- धड़म-धड़म- धड़म-धड़म- धड़म-धड़म पहले थोड़ी हल्की आवाज फिर तेज और फिर और तेज क्योंकि अब शायद मेरे मकान के पास ही आ गए थे ढोल-नगाड़े वाले। दवाई मैंने बेकार में ही खाई थी क्योंकि उसका कोई असर तो अब होने से रहा बल्कि दर्द और बढ़ गया। आप नगाड़ों की आवाज का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि मेरा रूम पांचवीं मंजिल पर है इसके बाबजूद मुझे बहुत तेज आवाज सुनाई दे रही थी। उस रात को काटना मेरे लिए बहुत मुश्किल साबित हुआ। क्योंकि तब तक सारे मेडिकल बंद हो चुके थे और किसी दोस्त के पास कोई टेबलेट नहीं थी। और इसी कारण मेरी तबियत अगले दो दिन तक खराब रही क्योंकि मुझे उस दिन भयानक सिर दर्द का सामना करना पड़ा।
किसी ने कहा है कि -अति किसी की भी हो चाहें वो प्यार की ही क्यों न हो बुरी होती है। अति से ज्यादा खुशी होना भी कभी-कभी आपके दुख का कारण बन सकता है। इसके कई सारे उदाहरण हैं फिर चाहें वो शादी-ब्याह में हुए झगड़े हों जिनमें लोगों की जानें तक गई हैं, या फिर औरतों का नाच जिसमें हमेशा हिंसा होने का डर बना रहता है। आपको अपनी खुशियां मनाने की पूरी आजादी है बल्कि मैं कहता हूं कि आप सभी हमेशा ऐसे ही खुशियां मनाते रहें क्योंकि खुशियां नसीब वालों को ही नसीब होती हैं। लेकिन आपको खुशी मनाने की आजादी तभी तक है जब तक आप की खुशियों से किसी दूसरे को दुख नहीं पहुंचता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हम सभी को है इसका भरपूर फायदा आप उठा सकते हो लेकिन एक सीमा में रहकर। नियम-कानून नाम की भी कोई चीज होती है जिसका हम सभी को अनुसरण करना चाहिए। अगर आप को रात के 10 बजे तक ढोल नगाड़े बजाने का अधिकार है तो इसका मतलब यह नहीं की आप सुबह से लेकर रात के 10 बजे तक ढोल ही बजाते रहोगे। किसी के मुंडन पर, बहू की गोद भराई पर, जन्मदिन पार्टी आदि पर तो सुना था कि ढोल बजते हैं, लेकिन यहां का हाल तो यह है कि कोई खास मेहमान आय तब ढोल, कोई जाए तब भी ढोल। यकीन मानिए इनके यहां रोज कम से कम 10 मेहमान आते हैं और 10 ही जाते हैं, एक मजेदार बात यह की मेहमानों के स्वागत का समय हमेशा शाम के 4 से 8 जबे के बीच ही होता है। समझ में नहीं आता की घर है या धर्मशाला।
बेर सराय की गलियां पहले से ही बहुत तंग हैं, अगर आप यहां चलते-चलते चाय की चुस्की लेना चाहते हैं तो यह एक अपने आप का पागलपन हो सकता है क्योंकि आपको इन गलियों में सिर्फ उतनी ही जगह मुनासिब होती है जितनी में आप खुद के शरीर की आकृति को आगे ले जा सको। हो सकता है मेरी कुंठा नई हो क्योंकि यहां पर पहले से काफी छात्र रह रहे हैं जिनके चेहरे पर शोर का कोई तनाव नहीं दिखता। हो सकता है इन लोगों ने खुद को उसी वातावरण में ढाल लिया हो। हो सकता है कि मैं भी उन सभी छात्रों की तरह हो जाऊं जो कभी भी इन सारी फिजूल की गतिविधियों के बारे में कुछ नहीं कहते। लेकिन मैं सोचने पर मजबूर हो जाता हूं कि अगर बेर सराय दिल्ली के इतने पॉश इलाके में नहीं होता तो क्या यह लोग इतना ही धूम-धड़ाका कर पाते? क्या यहां कि औरतें इतना ही नाच पातीं?

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